किसी भी देश की तरक्की उसके नागरिकों से होती है |यदि देश के नागरिक अच्छे हैं तो वह देश बहुत उन्नत्ति करता है |और योग्य नागरिकों के निर्माण में उस देश के शिक्षकों का सबसे बड़ा योगदान होता है | एक बालक जब किसी विद्यालय में प्रवेश लेता है तब वह एक कच्ची मिटटी की तरह होता है |घर में उस मिटटी को आकर देने वाले होते हैं अभिभावक |उनके बाद किसी बच्चे के जीवन में यदि सबसे अधिक किसी का प्रभाव होता है तो वह होता है एक गुरु या अध्यापक |
जी हाँ , आज हम बात कर रहे हैं डॉ .सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Sarvepalli Radhakrishnan Biography) की | जो अपने जीवन की अमिट छाप छोड़ कर इस दुनिया से गये हैं | डॉ.राधाकृषणन का नाम भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया है क्योंकि वे एक बहुत ही अच्छे अध्यापक विद्वान् होने के साथ -साथ दर्शनशास्त्र के ज्ञाता भी थे | उन्होंने भारत और पश्चिमी सभ्यता को मिला कर हिंदुत्व के रंग में रंगने के लिए प्रयास किये |यह उनके द्वारा किया गया एक सराहनीय कार्य था |
डॉ .राधाकृष्णन के अनुसार देश के शिक्षकों का दिमाग सबसे अच्छा होना ज़रूरी है |क्योंकी किसी भी देश को बनाने में शिक्षको का सबसे बड़ा योगदान होता है | डॉ .राधकृष्णन एक सुप्रसिद्ध राजनेता ,विद्वान् एवं लोकप्रिय शिक्षक के रूप में आज भी याद किये जाते हैं | वे आज़ाद भारत के पहले उपराष्ट्रपति तथा दुसरे राष्ट्रपति के तौर पर अपने महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | उनको याद करते हुए हमारेदेश में प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को उनका जनम दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है |
बाल्यकाल एवं शिक्षा
डॉ .राधाकृष्णन का जनम तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव तिरुमनी में एक ब्राह्मण परिवार में दिनांक 5 सितम्बर 1888 को हुआ था |इनके पिता का नाम सर्वपल्ली विरास्वामी था और माता का नाम सीताम्मा था | उनका पचपन गरीबी में बीता | क्योंकि इनके पिता परिवार की परवरिश के लिए अधिक धन नहीं जुटा पाते थे | इनका बचपन तिरुमनी गावं में ही बीता | इनकी शुरुवाती शिक्षा तिरुमनी गाँव में ही हुई | बाद मे इनके पिता ने इन्हें आगे की शिक्षा के लिए किश्चियन मिशनरी संस्था लुर्थन मिशन स्कूल ,तिरुपति में प्रवेश दिला दिया |तत्पश्चात वेल्लूर में आगे की शिक्षा ग्रहण की |तत्पश्चात वे मद्रास में आगे की पढाई के लिए गये | डॉ .राधाक्रष्ण शुरू से ही मेधावी छात्र रहे | उनकी शिक्षा में रूचि को देखते हुए हमेशा छात्रवृत्ति मिलती रही और वे आगे बढ़ते गये |
डॉ .राधाकृषण ने 16 वर्ष की उम्र में अपनी दूर की चचेरी बहन सिवाकमु से विवाह कर लिया था जिनकी उम्र मात्र 10 वर्ष थी | उस समय बहुत कम उम्र में ही विवाह हुआ करते थे | उनके 5 बेटियां और एक बेटा था |उनके बेटे का नाम सर्वपल्ली गोपाल है | इनकी पत्नी की मृत्यु 1956 में हो गई थी इनके पूर्वज किसी समय सर्वपल्ली ग्राम में रहा करते थे इसलिए इनके नाम के पहले सर्वपल्ली अभी तक प्रयोग किया जाता है | क्रिश्चियन स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के कारण इन्हें बाईबल के महत्वपूर्ण अंश भी याद हो गये थे | विद्यार्थी जीवन में इन्होने स्वामी विवेकानंदराधा,वीर सावरकर और अन्य समाज सुधारकों के बारे में भी पढ़ा और उनसे प्रभावित भी रहे |
राजनीतिक जीवन –
शिक्षक के रूप में लोकप्रिय होने के अलावा डॉ राधाकृष्णन एक सफल राजनीतिज्ञ भी रहे | भारत की आज़ादी के बाद वे 1952 में देश के पहले उपराष्ट्रपति तो रहे ही साथ ही उन्होंने भारत देश का यूनेस्को में प्रतिनिधत्व भी किया था | वे 1949 से 1952 तक सोवियत संघ में भारत के राजदूत भी रहे |1954 में उन्हें भारत रत्न का पुरस्कार दिया गया |जब भारत चीन और पाकिस्तान में युद्ध चल रहा था उस समय वे ही राष्ट्रपति पद पर आसीन थे |
डॉ राधाकृष्णन को स्वतंत्रता निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया था |1967 में वे राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत हो गये और 1967 में दिया गया भाषण उनका आखिरी भाषण था | सर्वपल्ली एक गैर परम्परा वादी राजनायिक थे | एक आदर्श शिक्षक होने के कारण वे अनुशासित जीवन यापन करते थे | राजनीति में होते हुए उनके कार्यों को संसद के सदस्य की सराहना भी मिलती थी |
हालांकि डॉ राधाकृष्णन को 1931 में ब्रिटिश शासन काल में “सर ” की उपाधि दी गयी थी लेकिन जब भारत स्वतंत्र हो गया तो उनकी सर की उपाधि का कोई औचित्य नहीं रह गया था | इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य भी मनोनीत किया गया | साथ ही ये कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी रहे |
देशप्रेम से ओत -प्रोत जीवन
डॉ . राधाकृष्णन का जीवन देश प्रेम से भरा हुआ था |ब्रिटिश शासन काल में पश्चिमी सभ्यता तथा मिशनरी संस्थाओं के नियमों के पालन पर विशेष जोर दिया जाता था | उन्होंने इसे भी एक अवसर के रूप में देखा और अपने जीवन मे उनके उच्च गुणों को आत्मसात किया | उन्होंने उन लोगों के विचारों में बदलाव लाने का प्रयास किया जो हिंदुत्व की आलोचना करते थे |उन्होंने यह साबित किया कि चाहे भारतीय अनपढ या गरीब हैं लेकिन यहाँ की जनता तथा आध्यात्म बहुत समृद्ध है | भारतीय संस्कृति ज्ञान ,धर्म और सत्य पर आधारित है जो व्यक्ति को एक सच्चा जीवन का संदेश देती है |
भारतीय संस्कृति से प्रेम
दर्शनशास्त्री होने के कारण सर्वपल्ली ने यह भली -भांति जान लिया था कि जीवन बहुत छोटा होता है और हमे जीवन के प्रत्येक पल को जीना चाहिए | व्यक्ति को सुख -दुःख में मिल जुल कर रहना चाहिए | मृत्यु एक अटल सच्च्चाई है जो आनी ही है | मौत यह नहीं देखती की कौन अमीर है कौन गरीब है | सच्चा ज्ञान वही है जो अंदर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है |
असंतोष का कारण है अहंकारी जीवन और इच्छाएं | वे एक शांत मस्तिष्क को तालियों की गडगडाहट से बेहतर मानते थे | उनका मानना था की आलोचनाएँ बदलाव लाती हैं |
इसी कारण वे अपने विद्यार्थियों में जीवन के प्रति आशावान रहने की शिक्षा देते थे | साथ ही बच्चों को इश्वर में विश्वास ,पाप से दूर रहने तथा मुसीबत में किसी की भी सहायता करने पर बल दिया करते थे | भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है | यही हिंदुत्व की विशिष्ट पहचान है |इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति के महत्व को समझा और लोगों में फैलाने का कार्य भी किया |
डॉ . सर्वपल्ली सम्पूर्ण विश्व को एक महाविद्यालय मानते थे | वे शिक्षा को मानव मष्तिष्क का विकास का माध्यम मानते थे | सम्पूर्ण विश्व को वे एक समझ कर एक जैसी शिक्षा पर जोर देते थे | विश्व एकता को वे बहुत ज़रूरी मानते थे | वे छात्रों में इसलिए भी प्रिय थे क्योंकि वे गुदगुदाने वाली कहानियों के माध्यम से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे | छात्रों को जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को जीवन मे उतारने के लिए प्रोत्साहित करते थे |किसी भी विषय को पढ़ाने से पहले वे उसका गहन अध्ययन करते थे | कठिन विषय को भी वे रोचक और सरल तथा प्रिय बनाने में सक्षम थे |
मानद उपाधियाँ
- सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
- ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
- कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
- सन् 1939 से 48 तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- 1946 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
- 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
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